स्यमन्तक मणि की कथा / The Story of Syamantaka Mani
भाद्रपद मास की चतुर्थी तिथि के दौरान चंद्रमा का दर्शन वर्जित माना गया है। यदि भूलवश गणेश चतुर्थी के दिन चंद्रमा दिखाई दे जाए, तो मिथ्या दोष से बचने के लिए नीचे दिया गया मंत्र जपना चाहिए और यह कथा सुननी चाहिए:
सिंह: प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हतः।
सुकुमारक मारोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकरः।।
एक बार नंदकिशोर ने सनतकुमारों से कहा कि चतुर्थी के चंद्र दर्शन से जो कलंक श्रीकृष्ण पर लगा था, वह केवल सिद्धिविनायक व्रत करने से ही मिटा था। यह सुनकर सनतकुमारों को बहुत आश्चर्य हुआ और उन्होंने विस्तार से पूरी घटना पूछी।
नंदकिशोर ने बताया कि जब जरासंध का भय बढ़ गया, तब श्रीकृष्ण ने समुद्र के बीच द्वारिकापुरी नाम की नगरी बसाई। वहीं सत्राजित नामक यादव सूर्यदेव की उपासना करता था। प्रसन्न होकर भगवान सूर्य ने उसे अपनी गले की स्यमन्तक मणि भेंट की, जो प्रतिदिन आठ भार सोना उत्पन्न करती थी।
जब सत्राजित मणि लेकर नगर में आया, तो श्रीकृष्ण ने उससे वह मणि मांगी, लेकिन सत्राजित ने देने से मना कर दिया और अपने भाई प्रसेनजित को दे दी। एक दिन प्रसेनजित घोड़े पर सवार होकर शिकार के लिए गया, जहां एक सिंह ने उसे मार डाला और मणि छीन ली। बाद में रीछों का राजा जामवन्त उस सिंह को मारकर मणि अपनी गुफा में ले गया।
जब प्रसेनजित कई दिनों तक नहीं लौटा, तो सत्राजित ने जल्दबाजी में यह अफवाह फैला दी कि श्रीकृष्ण ने मणि पाने के लिए प्रसेनजित की हत्या की है। इस आरोप को दूर करने के लिए श्रीकृष्ण स्वयं लोगों के साथ वन में खोज करने निकले। वहां पर प्रसेनजित को शेर द्वारा मार डालना और शेर को रीछ द्वारा मारने के चिह्न उन्हें मिल गए।
उन निशानों का पीछा करते हुए वे जामवन्त की गुफा तक पहुंचे। गुफा के अंदर उन्होंने देखा कि जामवन्त की पुत्री मणि से खेल रही है। श्रीकृष्ण को देखकर जामवन्त उनसे युद्ध करने को तैयार हो गया। गुफा के बाहर श्रीकृष्ण के साथी सात दिनों तक उनकी प्रतीक्षा करते रहे। जब वे नहीं लौटे, तो उन्हें मृत समझकर दुखी मन से द्वारिकापुरी वापस चले गए। उधर गुफा में श्रीकृष्ण और जामवन्त के बीच इक्कीस दिन तक लगातार युद्ध होता रहा, पर जामवन्त उन्हें परास्त नहीं कर सका। अंत में उसे एहसास हुआ कि यह वही प्रभु हैं, जिनसे उसे रामावतार में वरदान प्राप्त हुआ था। यह समझने पर उसने अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया और स्यमन्तक मणि दहेज स्वरूप भेंट की।
जब श्रीकृष्ण मणि लेकर लौटे, तो सत्राजित को अपने आरोप पर बहुत पछतावा हुआ। उसने भी अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया।
कुछ समय बाद श्रीकृष्ण किसी कार्य से इंद्रप्रस्थ चले गए। इसी दौरान अक्रूर और ऋतुवर्मा की सलाह पर शतधन्वा नामक यादव ने सत्राजित की हत्या कर दी और मणि ले ली। श्रीकृष्ण को जब यह खबर मिली, तो वे तुरंत द्वारका लौट आए और बलरामजी के साथ शतधन्वा का पीछा किया। उन्होंने शतधन्वा को मार तो दिया, लेकिन मणि नहीं मिली, क्योंकि वह पहले ही अक्रूर को दे दी गई थी।
बलरामजी को इस बात पर संदेह हुआ और वे अप्रसन्न होकर विदर्भ चले गए। तत्काल यह समाचार फैल गया कि स्यमन्तक मणि के लोभ में श्रीकृष्ण ने अपने भाई को भी त्याग दिया। यह अपमान श्रीकृष्ण के लिए अत्यंत दुःखद था।
इसी समय नारदजी वहाँ पहुँचे और बोले, “हे श्रीकृष्ण, आपने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चंद्र दर्शन किया था, उसी के कारण यह कलंक लगा है।”
श्रीकृष्ण ने पूछा, “ऐसा क्यों?”
नारदजी ने बताया कि एक बार ब्रह्माजी ने चतुर्थी को गणेशजी का व्रत किया था। प्रसन्न होकर गणेशजी ने उन्हें वरदान माँगने को कहा। ब्रह्माजी ने कहा कि उन्हें सृष्टि निर्माण का मोह न हो। गणेशजी ज्यों ही 'तथास्तु' कहकर चलने लगे, उनके विचित्र व्यक्तित्व को देखकर चंद्रमा ने उपहास किया। इस पर गणेशजी ने क्रोधित होकर चंद्रमा को शाप दिया कि अब से कोई भी तुम्हारा मुख नहीं देखना चाहेगा।
शाप से दुखी चंद्रमा मानसरोवर की कुमुदिनियों में जा छिपा। उसके बिना संसार अंधकारमय हो गया। चंद्रमा के बिना प्राणियों को बड़ा कष्ट हुआ। उनके कष्ट को देखकर, ब्रह्माजी की आज्ञा से सभी देवताओं ने व्रत किया। उनके व्रत से प्रसन्न होकर गणेशजी ने वरदान दिया कि चंद्रमा शाप से मुक्त तो हो जाएगा, लेकिन भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन जो भी उसका दर्शन करेगा, उस पर चोरी या अन्य झूठे आरोप अवश्य लगेंगे। हालांकि जो हर द्वितीया को चंद्र दर्शन करेगा, वह इस दोष से बच जाएगा। इस दिन सिद्धिविनायक व्रत करने से भी सभी दोष दूर हो जाएंगे।”
नारदजी ने कहा, “हे कृष्ण, यही कारण है कि आपको कलंक सहना पड़ा।”
तब श्रीकृष्ण ने वही व्रत करके स्वयं को दोषमुक्त किया।
कुरुक्षेत्र युद्ध से पहले युधिष्ठिर ने पूछा, “हे प्रभु, मनुष्य की सभी इच्छाएँ पूर्ण करने का उपाय क्या है?”
श्रीकृष्ण ने कहा, “जो व्यक्ति पार्वतीनंदन गणेशजी की विधिपूर्वक पूजा करता है, उसे धन, संतान, सौभाग्य और विजय सब प्राप्त होते हैं।”
श्रीकृष्ण के कहने पर युधिष्ठिर ने गणेश चतुर्थी का व्रत किया और उसी के फलस्वरूप महाभारत युद्ध में विजय प्राप्त की।
राधे राधे